पिछले हफ्ते एक दिन मैं शाम के वक़्त जब अपने पति और बच्चों के साथ सिटी सेंटर पहुंची तो वहाँ हमेशा की तरह काफ़ी भीड़ थी। सारे काम निपटा के हम भेल पूरी की दुकान पर पहुंचे। मेरी बेटी ने जाने से पहले ही मुझसे वादा करवा लिया था कि मैं उसे भेल पूरी खिलाऊंगी। खैर, हर जगह की तरह वहाँ भी काफ़ी भीड़ थी और हम अपना ऑर्डर दे कर इंतज़ार कर रहे थे। अचानक मुझे पापड़ वाला दिख गया। उसे करीब 4-5 सालों बाद मैंने देखा था और उसे देख कर मुझे इतनी खुशी हुई, या कहें चैन पड़ा, कि मैं बयान नहीं कर सकती। आज मैं आपको उस पापड़ वाले के बारे में बताना चाहती हूँ।
मैं उन दिनों दिल्ली में अपनी पढ़ाई कर रही थी। गर्मी की छुट्टियों में घर आई हुई थी। माँ स्कूल गयी थी इसलिए मैं आराम से लेट कर अपना नॉवेल पढ़ रही थी। अचानक दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी; घंटी नहीं बजाई। कोफ़्त तो बहुत हुआ पर उठ कर मैंने दरवाज़ा खोला तो एक छोटे कद का साँवला आदमी, जो सीधा तक खड़ा नहीं हो सकता था, कंधे पर मैला-कुचैला झोला टाँगे हाथ में पापड़ के कुछ पैकेट लिए खड़ा था। मुझे देखते ही उसने कहा, “पापड़ लीजिये”। वैसे उसने जो कहा कुछ अस्पष्ट सा ही था पर मैंने यही समझा। उस वक़्त न मेरे पास पैसे थे न ही उस पर भरोसा करने की कोई वजह, इसलिए मैंने मना कर के दरवाज़ा बंद कर लिया। करीब पाँच मिनट तक वो टिका रहा, फिर चला गया। माँ आई तो मैंने उन्हें उस पापड़ वाले के बारे में बताया। मुझे थोड़ी ग्लानि भी हो रही थी कि शायद मुझे उसका पापड़ खरीद कर उसकी मदद करनी चाहिए थी। माँ ने कहा कि चिंता की बात नहीं है, वो फिर एक-दो दिन बाद आएगा। यह सुन कर मुझे थोड़ी तसल्ली हुई।
अगली बार वो पापड़ वाला शाम के वक़्त आया, जब माँ घर पे थी। माँ ने उससे पापड़ ले लिया। वो एक और देना चाहता था पर माँ ने सख़्ती से मना कर दिया। बाद में माँ ने बताया कि उसके पापड़ की क्वालिटी ठीक नहीं थी इसलिए ज़्यादा नहीं ले सकते। वो हर हफ़्ते आता और माँ उससे एक पापड़ ले लेती। वो पापड़ वाकई में काफी मोटा और स्वादहीन था इसलिए पड़ा ही रहता था। आख़िर जब बहुत सा पापड़ इकठ्ठा हो गया तो माँ उसे मना करने की कोशिश करने लगी पर वो इस तरीके से बोलता था कि द्रवित हो कर माँ फिर ले लेती। इस तरह काफ़ी महीने गुजरने के बाद एक दिन माँ बिलकुल अड़ गयी कि नहीं लेना है। संयोग से मेरे पापा उस वक़्त घर में ही थे। वो काफ़ी नर्म दिल इंसान हैं तो उन्होने माँ से पापड़ ले लेने को कहा। माँ जब नाराज़ हुई कि सारा पापड़ पड़ा रहता है तो उन्होने कहा कि ठीक है मैं खाऊँगा। मुझे स्वाद की चिंता नहीं है। हार कर पापड़ वाले की बात रह गयी।
पापा हर दिन एक पापड़ सेंक कर खाने लगे। 15-20 दिनों में पापा का पेट काफ़ी बिगड़ गया। उसके बाद माँ ने पापड़ लेना बंद कर दिया। जितनी आसानी से मैंने कह दिया, असल में वो उतना ही मुश्किल काम था। वो पापड़ वाला दरवाज़ा बंद होने के काफ़ी देर बाद तक अपने हृदयविदारक अंदाज़ में “पापड़ लीजिये” की गुहार लगता रहता। माँ ने उससे ये भी कहा कि वो पापड़ के पैसे ले ले पर पापड़ ने दे पर उस इंसान को दाद देना होगा कि उसने मना कर दिया। ख़ैर, धीरे-धीरे उसने आना बंद कर दिया पर हम अक्सर उसकी चर्चा करते कि जाने वो कहाँ होगा, क्या करता होगा।
शादी के बाद मैं बोकारो में फिर रहने लगी तो एक दिन सिटी सेंटर में वो मुझे दिख गया। वही चाल, कंधे पर वही झोला, हाथ में पापड़ के 2-3 पैकेट और “पापड़ लीजिये” कहने का वही अंदाज़। मेरे मुंह से अनायास ही निकला, “अरे! पापड़ वाला”। मेरे पति ने कहा, “अच्छा, तुम भी जानती हो इसको”। पता चला कि उनके यहाँ भी कुछ दिन उससे पापड़ लिया गया था पर फिर खराब क्वालिटी की वजह से बंद करना पड़ा। मुझे एक बार इच्छा हुई कि एक पापड़ उससे लिया जाए पर फिर मैंने नहीं लिया, ये सोच कर कि पता नहीं कैसा होगा। शायद मन के किसी कोने में एक डर था कि फिर पुरानी कहानी दुहरानी न पड़े। उसे तो याद नहीं होगा पर एक पाप मैं दो बार नहीं करना चाहती थी। उसके बाद अक्सर वो यहाँ वहाँ मुझे दिखता था। फ़िर अचानक वो दिखना बंद हो गया। और करीब तीन साल बाद जब मैंने उसे पिछले हफ़्ते देखा तो मुझे एक सुकून सा मिला। क्योंकि उसके विषय में सोचने पर बुरे खयाल ही आते थे, अच्छे नहीं। इंसान शायद स्वभावत: ऐसी चीजों में निराशावादी ही होता है।
आप सोच रहे होंगे कि आख़िर उस पापड़ वाले में ऐसी क्या खास बात है कि मैंने उसे इतना महत्व दिया। है, बहुत महत्वपूर्ण है वो व्यक्ति मेरे लिए। मैंने उससे सच्चाई सीखी। अपने आप के प्रति सच्चाई। यदि वो चाहता तो मेरी माँ से पापड़ दिये बिना पैसे ले सकता था। और मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसे कई लोग उसे मिल जाते पर उसने मुफ़्त के पैसे को हराम समझा। उस देश मे जहां शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग भी मुफ़्तखोरी से बाज़ नहीं आते। इसलिए वो पापड़ वाला मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण है। जय हिन्द।